नमस्ते, यहाँ महात्मा गांधी के जीवन और विचारों पर एक विस्तृत ब्लॉग पोस्ट प्रस्तुत है।
महात्मा गांधी: सत्य के प्रयोग से राष्ट्रपिता तक का सफर
प्रस्तावना
महात्मा गांधी, जिन्हें बापू या राष्ट्रपिता के रूप में भी जाना जाता है, बीसवीं सदी के दुनिया के नेताओं में सबसे ऊँचे पायदान पर हैं। वे एक जटिल विचारक और अद्वितीय व्यक्तित्व थे, जिन्हें विश्वभर में भारी प्रशंसा मिली, लेकिन कई बार गलत भी समझा गया। गांधी खुद अपने और बाकी दुनिया के लिए इतिहास बनाने वाले एक रचनात्मक व्यक्ति थे। उनका जीवन "सत्य के प्रयोगों" की एक श्रृंखला थी, जिसका एकमात्र उद्देश्य आत्म-दर्शन, ईश्वर का साक्षात्कार और मोक्ष प्राप्त करना था। सत्य और अहिंसा के अपने दर्शन के साथ, उन्होंने एक ऐसी अहिंसात्मक मानवीय समाज की अवधारणा को जन्म दिया जो आज भी दुनिया भर के लोगों को प्रेरणा देती है।
यह ब्लॉग पोस्ट मोहनदास करमचंद गांधी के जीवन, उनके संघर्षों, और उनके मूल दर्शन—सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, सर्वोदय, स्वराज, और सामाजिक सुधारों—की एक विस्तृत यात्रा है, जो मुख्य रूप से उनकी अपनी संक्षिप्त आत्मकथा और अन्य संबंधित स्रोतों पर आधारित है।
भाग-1: महात्मा का निर्माण - एक कालानुक्रमिक जीवन यात्रा
अध्याय 1: बचपन और युवावस्था
जन्म और माता-पिता
मोहनदास करमचंद गांधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के तटीय शहर पोरबंदर, जिसे सुदामापुरी भी कहा जाता है, में हुआ था। उनका परिवार पहले पंसारी का धंधा करता था, लेकिन उनकी पिछली तीन पीढ़ियाँ दीवानगिरी करती आ रही थीं। उनके पिता, करमचंद गांधी, जिन्हें कबा गांधी के नाम से भी जाना जाता था, पोरबंदर, राजकोट और वांकानेर में दीवान थे। वे सत्य-प्रिय, शूर, उदार लेकिन क्रोधी स्वभाव के थे और उन्होंने कभी धन बटोरने का लोभ नहीं किया। उनकी शिक्षा केवल अनुभव की थी, लगभग गुजराती की पाँचवीं किताब के बराबर, और उन्हें इतिहास-भूगोल का ज्ञान बिल्कुल नहीं था। फिर भी, उनका व्यावहारिक ज्ञान इतना ऊँचा था कि वे बारीक से बारीक सवालों को सुलझाने और हजारों लोगों से काम लेने में भी कठिनाई महसूस नहीं करते थे।
गांधीजी की माता, पुतलीबाई, एक साध्वी स्त्री थीं जो अत्यंत श्रद्धालु थीं। वे पूजा-पाठ किए बिना कभी भोजन नहीं करती थीं और हमेशा हवेली (वैष्णव-मंदिर) जाती थीं। वे कठिन से कठिन व्रत रखतीं और बीमारी में भी उन्हें नहीं छोड़ती थीं। एक बार उन्होंने चातुर्मास में सूर्य-नारायण के दर्शन करके ही भोजन करने का व्रत लिया था। उन दिनों बालक गांधी और उनके भाई-बहन बादलों की ओर ताकते रहते थे कि कब सूरज निकले और माँ भोजन करें। कई बार ऐसा होता कि जैसे ही वे माँ को बुलाते, सूरज छिप जाता, और माँ यह कहकर लौट जातीं कि "आज भाग्य में भोजन नहीं है"। गांधीजी पर उनकी माता की धार्मिकता की गहरी छाप पड़ी।
पाठशाला के अनुभव
गांधीजी का बचपन पोरबंदर में बीता, जहाँ उन्हें एक पाठशाला में भर्ती कराया गया था। उन्हें अपनी बुद्धि साधारण और स्मरण-शक्ति कमजोर लगती थी। सात साल की उम्र में, वे अपने पिता के साथ राजकोट चले गए और वहाँ के हाईस्कूल में पढ़ने लगे। वे एक बहुत शर्मीले लड़के थे और स्कूल की घंटी बजते ही पहुँचते और छुट्टी होते ही घर भाग जाते, क्योंकि उन्हें किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता था और डर रहता था कि कोई उनका मजाक उड़ाएगा।
उनके स्कूली जीवन की दो घटनाओं का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। एक, जब उन्होंने 'श्रवण-पितृभक्ति नाटक' नामक पुस्तक पढ़ी और शीशे में चित्र दिखाने वालों से श्रवण द्वारा अपने माता-पिता को काँवर में बैठाकर यात्रा पर ले जाने का दृश्य देखा। इससे उनके मन में श्रवण जैसा बनने की इच्छा जाग्रत हुई। दूसरी घटना 'हरिश्चंद्र का आख्यान' नाटक देखने से संबंधित थी, जिसे वे बार-बार देखना चाहते थे। हरिश्चंद्र के सत्य के लिए कष्ट सहने के विचार ने उन्हें बहुत प्रभावित किया, और वे सोचते थे कि "हरिश्चंद्र की तरह सत्यवादी सब क्यों नहीं होते?"।
एक बार स्कूल के इंस्पेक्टर जाइल्स निरीक्षण के लिए आए और उन्होंने छात्रों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखने को दिए, जिनमें से एक 'केटल' (kettle) था। गांधीजी ने इसकी वर्तनी गलत लिखी। शिक्षक ने उन्हें बूट की नोक मारकर पास वाले लड़के की पट्टी से नकल करने का इशारा किया, लेकिन गांधीजी यह नहीं समझ पाए। उन्हें लगा कि शिक्षक यह देख रहे हैं कि कोई चोरी न करे। परिणामस्वरूप, अकेले वही "बेवकूफ" साबित हुए, लेकिन उन्होंने नकल करके चोरी करना कभी नहीं सीखा। वे अपने आचरण के विषय में बहुत सजग थे और कोई गलती होने पर उन्हें रोना आ जाता था।
बाल-विवाह और कस्तूरबा के साथ संबंध
यह लिखते हुए गांधीजी को संकोच होता है कि तेरह साल की उम्र में उनका विवाह हो गया था। उस समय उनके मन में अच्छे कपड़े पहनने, बाजे बजने, और एक नई बालिका के साथ विनोद करने के अलावा कोई खास विचार नहीं था। उनकी पत्नी, कस्तूरबाई, भी लगभग उन्हीं की उम्र की थीं। गांधीजी ने जल्द ही उन पर पतित्व का अधिकार जताना शुरू कर दिया। वे चाहते थे कि कस्तूरबाई उनकी अनुमति के बिना कहीं न जाएँ, जो उनके बीच दुःखद झगड़ों का कारण बन गया। कस्तूरबाई ऐसी कैद सहने वाली नहीं थीं और जहाँ इच्छा होती, बिना पूछे चली जातीं। गांधीजी की यह वक्रता प्रेम पर आधारित थी; वे अपनी पत्नी को एक आदर्श स्त्री बनाना चाहते थे जो स्वच्छ रहे, और जो वे सीखें या पढ़ें, वह भी सीखे और पढ़े। कस्तूरबाई स्वभाव से सीधी, स्वतंत्र, और मेहनती थीं, लेकिन निरक्षर थीं और उन्हें अपने अज्ञान का कोई असंतोष नहीं था।
दुःखद प्रसंग-मैत्री और मांसाहार का प्रयोग
हाईस्कूल में गांधीजी के कुछ ही मित्र थे। उनकी एक दोस्ती उनके जीवन का एक दुःखद प्रसंग बनी। यह मित्र उनके मझले भाई के सहपाठी थे और उनमें कई दोष थे, लेकिन गांधीजी का संबंध उन्हें सुधारने के उद्देश्य से था। उनकी माता, बड़े भाई और पत्नी, सभी को यह दोस्ती पसंद नहीं थी। बाद में गांधीजी ने महसूस किया कि सुधार करने के लिए भी किसी को गहरे पानी में नहीं उतरना चाहिए, क्योंकि मित्रता में सुधार के लिए बहुत कम गुंजाइश होती है।
उन दिनों राजकोट में 'सुधारपंथ' का जोर था। उस मित्र ने गांधीजी को यह कहकर मांसाहार के लिए प्रेरित किया कि अंग्रेज इसलिए हम पर राज करते हैं क्योंकि वे मांसाहारी हैं, और मांसाहार से शरीर बलवान और साहसी बनता है। गांधीजी स्वयं डरपोक थे; उन्हें चोर, भूत, साँप आदि से डर लगता था। अपने मित्र की शारीरिक शक्ति से प्रभावित होकर और देश को अंग्रेजों से स्वतंत्र कराने के विचार से प्रेरित होकर, उन्होंने मांसाहार करने का निश्चय किया।
यह निर्णय उनके लिए बहुत गंभीर था क्योंकि उनका परिवार कट्टर वैष्णव था और वे जानते थे कि यह बात उनके माता-पिता को गहरा आघात पहुँचाएगी। उन्होंने छिपकर नदी किनारे जाकर पहली बार मांस खाया, जो उन्हें चमड़े जैसा लगा और उन्हें उल्टी होने लगी। लगभग एक साल तक, उन्होंने पाँच-छह बार मांसाहार किया। जब भी वे ऐसा करते, उन्हें घर पर भोजन न करने के लिए अपनी माँ से झूठ बोलना पड़ता, जो उन्हें बहुत दुःख देता था। अंत में, उन्होंने निश्चय किया कि माता-पिता को धोखा देना और झूठ बोलना मांस न खाने से भी बुरा है, इसलिए उन्होंने उनके जीवित रहते मांसाहार न करने का फैसला किया।
चोरी और प्रायश्चित
मांसाहार के प्रयोगों के दौरान और उससे पहले गांधीजी ने कुछ और गलतियाँ भी कीं। उन्हें एक रिश्तेदार के साथ बीड़ी पीने का शौक लगा। पैसे न होने के कारण वे अपने काकाजी द्वारा फेंके गए बीड़ी के ठूँठ चुराने लगे। जब इससे भी काम न चला, तो उन्होंने नौकर की जेब से पैसे चुराकर बीड़ी खरीदना शुरू किया। इस पराधीनता से ऊबकर उन्होंने एक बार धतूरे के बीज खाकर आत्महत्या करने का भी निश्चय किया, लेकिन हिम्मत न होने पर यह विचार त्याग दिया। आत्महत्या के विचार का परिणाम यह हुआ कि वे बीड़ी पीने और पैसे चुराने की आदत भूल गए।
एक और घटना उनके मझले भाई से संबंधित है, जिन पर लगभग पच्चीस रुपये का कर्ज हो गया था। कर्ज चुकाने के लिए भाई के हाथ में पहने सोने के कड़े में से एक तोला सोना काटा गया। इस घटना से गांधीजी को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने निश्चय किया कि वे भविष्य में कभी चोरी नहीं करेंगे। उन्होंने अपने पिता के सामने अपना दोष स्वीकार करने का फैसला किया। चूँकि उनमें सीधे कहने की हिम्मत नहीं थी, उन्होंने एक चिट्ठी में अपना सारा अपराध स्वीकार किया, सजा माँगी और भविष्य में ऐसा न करने की प्रतिज्ञा की। उनके पिता भगंदर की बीमारी से पीड़ित थे और बिस्तर पर पड़े रहते थे। उन्होंने चिट्ठी पढ़ी, और उनकी आँखों से मोती की बूँदें टपकने लगीं, जिससे चिट्ठी भीग गई। उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदीं, चिट्ठी फाड़ दी और वापस लेट गए। गांधीजी के लिए यह अहिंसा का पदार्थ-पाठ था। पिता के प्रेम-बाण ने उन्हें बेध दिया और वे शुद्ध हो गए। इस शांत क्षमा का कारण अपराध की सरल स्वीकृति थी। इस घटना के बाद उनके पिता का उन पर प्रेम और भी बढ़ गया।
पिता की मृत्यु और शर्म
सोलह वर्ष की आयु में गांधीजी अपने बीमार पिता की सेवा में लगे रहते थे। उन्हें यह सेवा बहुत प्रिय थी, लेकिन उनका मन अपनी पत्नी की ओर भी आकर्षित रहता था। जिस रात उनके पिता का देहांत हुआ, उनके चाचाजी ने उन्हें आराम करने के लिए भेज दिया। वे अपने शयन-गृह में गए और अपनी पत्नी को जगाया। कुछ ही मिनटों बाद नौकर ने आकर खबर दी, "बापू गुजर गये!"। गांधीजी को इस बात का गहरा पछतावा हुआ कि अगर वे विषयासक्त न होते, तो अपने पिता की अंतिम घड़ी में उनके पास होते। इस "काले दाग" को वे कभी मिटा नहीं सके और इसे अपनी सेवा में एक अक्षम्य त्रुटि मानते रहे।
धर्म की पहली झाँकी
यद्यपि गांधीजी को स्कूल में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं मिली, लेकिन उन्हें अपनी धाय रम्भा से धर्म की पहली झलक मिली। रम्भा ने उन्हें सिखाया कि भूत-प्रेत के डर की दवा राम-नाम है। बचपन में बोया गया यह बीज आगे चलकर उनके लिए अमोघ शक्ति बन गया। उन्होंने अपने पिता के साथ तुलसीदास की रामायण का पाठ भी सुना, जिसने उनके मन पर गहरी छाप छोड़ी और रामायण के प्रति उनके अत्यधिक प्रेम की बुनियाद डाली। उन्होंने सभी संप्रदायों के प्रति समान भाव रखना सीखा, क्योंकि उनके माता-पिता वैष्णव-मंदिर, शिवालय और राम-मंदिर, सभी जगह जाते थे। हालांकि, उस समय ईसाई धर्म के प्रति उनके मन में कुछ अरुचि उत्पन्न हो गई, क्योंकि कुछ ईसाई प्रचारक हिंदू देवताओं की बुराई करते थे। इन अनुभवों से उनके मन में यह बात जड़ जमा गई कि यह संसार नीति पर टिका है और नीति का समावेश सत्य में है।
अध्याय 2: लंदन में एक छात्र
विलायत की तैयारी
मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद, गांधीजी ने भावनगर के शामलदास कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन वहाँ की पढ़ाई उन्हें बहुत मुश्किल लगी। परिवार के एक मित्र, मावजी दवे (जोशीजी), ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें बैरिस्टर बनने के लिए विलायत (इंग्लैंड) जाना चाहिए, क्योंकि वहाँ की पढ़ाई सरल है और इससे भविष्य में दीवानगिरी मिलने की संभावना भी अधिक है। गांधीजी इस विचार से बहुत उत्साहित हुए।
लेकिन उनकी माँ, पुतलीबाई, को यह चिंता थी कि नौजवान लोग विलायत जाकर बिगड़ जाते हैं, मांसाहार और शराब का सेवन करने लगते हैं। गांधीजी ने उन्हें शपथपूर्वक वचन दिया कि वे इन तीनों चीजों से दूर रहेंगे। फिर भी, माँ को तसल्ली नहीं हुई, तब एक जैन साधु, बेचरजी स्वामी, ने गांधीजी से मांस, मदिरा और स्त्री-संग से दूर रहने का व्रत दिलवाया, जिसके बाद उनकी माँ ने आज्ञा दी। इस बीच, उनकी जाति (मोढ़ बनिया) में खलबली मच गई, क्योंकि तब तक कोई भी मोढ़ बनिया विलायत नहीं गया था। जाति की पंचायत ने उन्हें जाति से बाहर करने का हुक्म दिया, लेकिन उनके बड़े भाई दृढ़ रहे और उन्हें जाने की अनुमति दी। अंततः, 4 सितंबर, 1888 को वे बम्बई के बंदरगाह से विलायत के लिए रवाना हुए।
स्टीमर का अनुभव और लंदन में आगमन
जहाज पर गांधीजी को अंग्रेजी में बात करने में बहुत संकोच होता था। वे अधिकतर अपनी कोठरी में ही रहते और घर से लाई मिठाई से काम चलाते थे। एक अंग्रेज यात्री ने उन्हें सलाह दी कि इंग्लैंड की ठंड में बिना मांसाहार के रहना मुश्किल होगा, लेकिन गांधीजी अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ रहे।
सितंबर के अंत में वे लंदन पहुँचे। उन्होंने सफेद फलालैन का सूट पहना था, यह सोचकर कि यह अच्छा लगेगा, लेकिन वहाँ इस पोशाक में वे अकेले ही थे, जिससे उन्हें बहुत शर्मिंदगी हुई। वे विक्टोरिया होटल में ठहरे। वहाँ उनकी मुलाकात डॉ. प्राणजीवन मेहता से हुई, जिनके नाम उनके पास सिफारिशी पत्र था। डॉ. मेहता ने उन्हें यूरोप के रीति-रिवाजों के बारे में पहली शिक्षा दी, जैसे किसी की चीज न छूना, ऊंची आवाज में बात न करना, और अंग्रेजों से बात करते समय 'सर' कहने की अनावश्यकता। होटल का खर्च (लगभग तीन पौंड) देखकर वे चकित रह गए, क्योंकि वहाँ का भोजन उन्हें पसंद नहीं आया था और वे भूखे ही रहे थे। जल्द ही वे एक सिंधी यात्री की मदद से किराए के कमरों में चले गए, लेकिन वहाँ भी उन्हें देश और अपनी माँ के प्रेम की बहुत याद आती थी, और वे रातों को रोते थे।
'सभ्य' बनने का प्रयास
अपने एक मित्र की चिंता दूर करने के लिए कि वे मांसाहार के बिना कमजोर और "जंगली" रह जाएँगे, गांधीजी ने "सभ्य" बनने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी सामर्थ्य से परे जाकर बॉन्ड स्ट्रीट से कीमती पोशाकें सिलवाईं, सोने की चेन मंगवाई, और आईने के सामने खड़े होकर टाई बाँधने और बालों में माँग निकालने का अभ्यास करने लगे। उन्होंने नृत्य, फ्रेंच भाषा और भाषण-कला सीखने के लिए भी कक्षाएँ शुरू कीं और वायोलीन भी खरीदा।
लगभग तीन महीने बाद, उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ। उन्हें लगा कि उन्हें इंग्लैंड में जीवन नहीं बिताना है और एक विद्यार्थी के रूप में उन्हें अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने इन सभी कक्षाओं को छोड़ दिया और निश्चय किया कि यदि वे अपने सदाचार से सभ्य समझे जाएँ तो ठीक है, अन्यथा यह लोभ छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार वे फिर से एक विद्यार्थी बन गए।
सादगी की ओर फेरफार
"सभ्य" बनने के मोह के दौरान भी, गांधीजी पाई-पाई का हिसाब रखते थे। उन्होंने अपने खर्च को आधा करने का निश्चय किया और परिवारों में रहने के बजाय अपना अलग कमरा किराए पर लिया। उन्होंने ऐसे मुहल्लों में घर चुने जहाँ से काम की जगह पर आधे घंटे में पैदल पहुँचा जा सके, जिससे उनका गाड़ी-भाड़ा बचता था और रोज आठ-दस मील टहलने का व्यायाम भी हो जाता था। इस आदत के कारण वे विलायत में शायद ही कभी बीमार पड़े।
उन्होंने बैरिस्टरी के अलावा लंदन की मैट्रिक्युलेशन परीक्षा देने का भी निश्चय किया, जिसके लिए लैटिन और फ्रेंच जैसी भाषाएँ सीखना अनिवार्य था। इसके लिए उन्होंने अत्यंत उद्यमी विद्यार्थी बनकर समय-सारिणी बनाकर एक-एक मिनट का उपयोग किया। उन्होंने अपने खर्च को और कम करके हर महीने चार या पाँच पौंड में निर्वाह करना सीख लिया, जिसके लिए उन्होंने सुबह का भोजन खुद बनाना शुरू किया। इन फेरफारों से उनका जीवन अधिक सादा, सारमय और आत्मानंद से भर गया।
असत्यरूपी विष
उस समय विलायत जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों में अपने विवाहित होने की बात छिपाने का रिवाज था, ताकि वे अंग्रेज परिवारों की युवतियों के साथ घूमने-फिरने और हंसी-मजाक करने का मौका पा सकें। इस "मोहनी माया" में फँसकर गांधीजी ने भी, जो एक बच्चे के पिता थे, स्वयं को कुँआरा बताया।
ब्राइटन में उनकी मुलाकात एक विधवा महिला से हुई, जिन्होंने उन्हें हर रविवार अपने घर भोजन पर आमंत्रित किया। वे उनका परिचय युवतियों से कराती थीं, इस आशा में कि वे विवाह कर लें। जब एक युवती के साथ उनका संबंध आगे बढ़ने लगा, तो गांधीजी को अपनी भूल का अहसास हुआ और उन्होंने उस महिला को पत्र लिखकर अपनी सच्चाई बता दी कि वे विवाहित हैं और एक बच्चे के पिता भी हैं। उस महिला ने उन्हें माफ कर दिया और उनकी मित्रता बनी रही। इस घटना से गांधीजी ने अपने अंदर घुसे हुए असत्य के विष को बाहर निकाल दिया और फिर उन्हें अपने विवाह की बात करने में कभी घबराहट नहीं हुई।
धर्मों का परिचय
विलायत में गांधीजी की मुलाकात दो थियोसोफिस्ट भाइयों से हुई, जो एडविन आर्नोल्ड द्वारा अनुवादित भगवद्गीता पढ़ रहे थे। उन्होंने गांधीजी को अपने साथ संस्कृत में गीता पढ़ने के लिए आमंत्रित किया। गांधीजी को शर्मिंदगी हुई क्योंकि उन्होंने पहले कभी गीता नहीं पढ़ी थी, लेकिन वे उनके साथ पढ़ने को तैयार हो गए। गीता के दूसरे अध्याय के श्लोकों का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा, और उन्हें यह एक अमूल्य ग्रंथ लगा। उन्हीं भाइयों के कहने पर उन्होंने आर्नोल्ड की 'द लाइट ऑफ एशिया' (बुद्ध-चरित) भी पढ़ी, जिसे उन्होंने भगवद्गीता से भी अधिक रसपूर्वक पढ़ा। इन पुस्तकों ने उनमें हिंदू धर्म की पुस्तकें पढ़ने की इच्छा पैदा की और यह ख्याल दूर किया कि हिंदू धर्म अंधविश्वासों से भरा है।
एक ईसाई मित्र की सलाह पर उन्होंने बाइबिल पढ़ना शुरू किया। 'पुराना इकरार' (Old Testament) उन्हें नीरस लगा, लेकिन 'नये इकरार' (New Testament) का, विशेषकर 'गिरि-प्रवचन' (Sermon on the Mount) का, उन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा। उन्होंने इसकी तुलना गीता से की और यह समझा कि त्याग में ही धर्म है। इस प्रकार, उन्होंने सभी मुख्य धर्मों का परिचय प्राप्त करने का निश्चय किया।
अध्याय 3: भारत में एक बैरिस्टर
10 जून, 1891 को गांधीजी बैरिस्टर कहलाए और 12 जून को हिंदुस्तान के लिए रवाना हो गए। लेकिन वे निराश और भयभीत थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि उन्होंने कानून तो पढ़ा है, पर वकालत करना नहीं सीखा। जब वे बम्बई पहुँचे, तो उनके बड़े भाई ने उन्हें उनकी माँ के स्वर्गवास का समाचार दिया, जो उनसे छिपाकर रखा गया था। माँ की मृत्यु का आघात उन्हें पिता की मृत्यु से भी अधिक गहरा लगा।
बम्बई में वकालत जमाने की उनकी कोशिश असफल रही। उन्हें एक हाईस्कूल में अंशकालिक शिक्षक की नौकरी के लिए भी आवेदन किया, लेकिन ग्रेजुएट न होने के कारण उन्हें यह काम नहीं मिला। उनका पहला मुकदमा ममीबाई का था, जो एक छोटी अदालत में था। जब वे जिरह करने के लिए खड़े हुए, तो उनके पैर काँपने लगे, सिर चकराने लगा और आँखों के सामने अँधेरा छा गया। वे एक भी सवाल नहीं पूछ सके और उन्हें बैठकर दूसरे वकील को अपनी जगह नियुक्त करने के लिए कहना पड़ा। इस घटना से शर्मिंदा होकर उन्होंने निश्चय किया कि जब तक पूरी हिम्मत न आ जाए, कोई मुकदमा नहीं लेंगे।
बम्बई में निराश होकर वे राजकोट लौट आए, जहाँ उन्होंने अर्ज़ियाँ लिखने का काम शुरू किया, जिससे उन्हें हर महीने औसतन 300 रुपये की आमदनी होने लगी। इसी बीच, उनके भाई ने उन्हें एक अंग्रेज पॉलिटिकल एजेंट से सिफारिश करने के लिए कहा, जिससे गांधीजी विलायत में मिल चुके थे। गांधीजी को यह अच्छा नहीं लगा, लेकिन भाई के आग्रह पर वे गए। साहब ने उनसे रूखा व्यवहार किया और जब गांधीजी ने अपनी बात पूरी करने की कोशिश की, तो साहब ने चपरासी को बुलाकर उन्हें धक्के देकर बाहर निकलवा दिया। इस अपमान से आहत होकर गांधीजी ने साहब पर मानहानि का मुकदमा करने की धमकी दी, लेकिन सर फीरोजशाह मेहता ने उन्हें सलाह दी कि वे इस अपमान को पी जाएँ, क्योंकि अंग्रेज अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने से वे बर्बाद हो जाएँगे। इस "पहले आघात" ने उनके जीवन की दिशा बदल दी। उन्हें काठियावाड़ के षड्यंत्रों से घृणा हो गई और वे भारत छोड़ने का अवसर खोजने लगे।
जल्द ही पोरबंदर की एक मेमन फर्म, दादा अब्दुल्ला एंड कंपनी, ने उन्हें दक्षिण अफ्रीका में अपने एक मुकदमे में मदद करने के लिए एक साल का प्रस्ताव दिया। उन्होंने 105 पौंड के वेतन और यात्रा खर्च के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और अप्रैल 1893 में दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हो गए।
अध्याय 4: दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का जन्म
रंगभेद का पहला अनुभव
दक्षिण अफ्रीका के नेटाल बंदरगाह पर उतरते ही गांधीजी को यह अहसास हो गया कि वहाँ हिंदुस्तानियों की अधिक इज्जत नहीं है। उन्हें "कुली बैरिस्टर" कहा जाने लगा। अदालत में एक मजिस्ट्रेट ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने के लिए कहा, जिसका उन्होंने विरोध किया और अदालत छोड़ दी। उन्होंने इस घटना के बारे में अखबारों में लिखा, जिससे वे रातों-रात दक्षिण अफ्रीका में प्रसिद्ध हो गए।
कुछ दिनों बाद, उन्हें मुकदमे के सिलसिले में प्रिटोरिया जाना पड़ा। उनके पास पहले दर्जे का टिकट था, लेकिन नेटाल की राजधानी मेरिट्सबर्ग में एक गोरे यात्री के ऐतराज पर रेलवे अधिकारियों ने उन्हें डिब्बे से बाहर निकाल दिया। उस रात कड़ाके की ठंड में वे वेटिंग रूम में काँपते रहे और अपने धर्म पर विचार करते रहे। उन्होंने फैसला किया कि इस अपमान को सहकर मुकदमा खत्म करके लौटना नामर्दी होगी। उन्हें इस गहरे रंग-द्वेष के खिलाफ लड़ना चाहिए।
चार्ल्सटाउन से जोहानिसबर्ग तक की यात्रा उन्हें एक घोड़ागाड़ी (सिकरम) में करनी थी। वहाँ भी उन्हें "कुली" होने के कारण अंदर बैठने की जगह नहीं दी गई और कोचवान के बगल में बैठाया गया। रास्ते में एक गोरे अधिकारी ने सिगरेट पीने और हवा खाने के लिए गांधीजी को अपनी जगह से हटाकर कोचवान के पैरों के पास एक मैले बोरे पर बैठने को कहा। जब गांधीजी ने इसका विरोध किया, तो उस अधिकारी ने उन्हें पीटना शुरू कर दिया। अंदर बैठे यात्रियों के हस्तक्षेप से वह रुक गया। जोहानिसबर्ग पहुँचने पर भी उन्हें किसी होटल में कमरा नहीं मिला क्योंकि वे "कुली" थे। ये अनुभव गांधीजी के लिए बहुत कड़वे थे, लेकिन उन्होंने उन्हें दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की स्थिति को समझने का अवसर दिया।
भारतीयों की परेशानियों का अध्ययन
प्रिटोरिया में गांधीजी ने सभी हिंदुस्तानियों की एक सभा बुलाई और उन्हें व्यापार में सच्चाई और स्वच्छता के महत्व के बारे में समझाया। उन्होंने एक मंडल की स्थापना का सुझाव दिया ताकि अधिकारियों से मिलकर अर्जियाँ भेजकर कष्टों का निवारण किया जा सके। उन्होंने वहाँ रहने वाले ब्रिटिश एजेंट से भी मुलाकात की और रेलवे अधिकारियों के साथ पत्र-व्यवहार शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप अच्छे कपड़े पहने हुए हिंदुस्तानियों को ऊँचे दर्जे के टिकट दिए जाने का आदेश जारी हुआ। उन्होंने पाया कि ट्रांसवाल और ऑरेंज फ्री स्टेट में हिंदुस्तानियों की स्थिति बहुत दयनीय थी। उन्हें पटरी पर चलने का अधिकार नहीं था और रात नौ बजे के बाद बिना परवाने के बाहर निकलने की मनाही थी। एक बार राष्ट्रपति क्रूगर के घर के सामने एक सिपाही ने उन्हें बिना चेतावनी के लात मारकर पटरी से नीचे उतार दिया। गांधीजी ने निश्चय किया कि वे इस अन्याय के खिलाफ लड़ेंगे, लेकिन उन्होंने अपने ऊपर हुए व्यक्तिगत हमलों के लिए कभी अदालत में न जाने का नियम बना लिया।
मुकदमे की तैयारी और सच्ची वकालत
दादा अब्दुल्ला का मुकदमा, जिसके लिए वे दक्षिण अफ्रीका गए थे, 40,000 पौंड का था और बही-खातों की उलझनों से भरा था। गांधीजी ने पाया कि अगर यह मुकदमा लंबा चला तो दोनों पक्ष, जो रिश्तेदार थे, बर्बाद हो जाएँगे। उन्होंने दोनों पक्षों को समझाया और मामले को पंच के पास ले जाने के लिए राजी किया। अंत में, दादा अब्दुल्ला मुकदमा जीत गए। गांधीजी को संतोष हुआ और उन्होंने महसूस किया कि एक वकील का असली कर्तव्य दो पक्षों के बीच की खाई को पाटना है। इस अनुभव से उन्होंने "सच्ची वकालत" सीखी, और अपनी बीस साल की वकालत का अधिकांश समय उन्होंने सैकड़ों मामलों को आपस में सुलझाने में बिताया।
नाताल इंडियन कांग्रेस और तीन पौंड का कर
प्रिटोरिया में अपना काम खत्म करने के बाद जब गांधीजी भारत लौटने की तैयारी कर रहे थे, तो उन्हें पता चला कि नेटाल सरकार एक कानून बना रही है जो हिंदुस्तानियों से मताधिकार छीन लेगा। वहाँ के भारतीयों के आग्रह पर, वे एक महीने और रुकने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने इस बिल के खिलाफ एक याचिका तैयार की, जिस पर दस हजार लोगों ने हस्ताक्षर किए, और उसे औपनिवेशिक मंत्री लॉर्ड रिपन को भेजा गया। इस आंदोलन को जारी रखने के लिए 22 मई, 1894 को नाताल इंडियन कांग्रेस की स्थापना की गई।
इस बीच, एक और दमनकारी कानून प्रस्तावित किया गया, जिसके तहत गिरमिट (अनुबंध) पूरा करने के बाद नेटाल में रहने वाले प्रत्येक भारतीय पुरुष, स्त्री और 16 वर्ष से अधिक उम्र के बच्चों पर तीन पौंड का वार्षिक कर लगाया जाना था। यह एक बहुत बड़ा बोझ था, खासकर उन मजदूरों के लिए जिनकी मासिक आय मुश्किल से 14 शिलिंग थी। कांग्रेस ने इस कर के खिलाफ एक जोरदार लड़ाई छेड़ी। यह संघर्ष 20 साल तक चला और अंततः सत्याग्रह के माध्यम से ही इस कर को रद्द करवाया गया।
बोअर-युद्ध और जुलू-विद्रोह
1899 में बोअर-युद्ध छिड़ने पर, गांधीजी की सहानुभूति बोअरों के साथ थी, लेकिन उन्होंने महसूस किया कि ब्रिटिश प्रजाजन होने के नाते, उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा में हाथ बँटाना चाहिए। उन्होंने लगभग 1100 भारतीय स्वयंसेवकों की एक एम्बुलेंस टुकड़ी खड़ी की, जिसने घायलों की सेवा-शुश्रूषा का काम किया। उनके इस काम की बहुत प्रशंसा हुई और इससे हिंदुस्तानियों की प्रतिष्ठा बढ़ी।
1906 में, जब जुलू 'विद्रोह' हुआ, तो गांधीजी ने फिर से एक घायल-सेवा टुकड़ी का गठन किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि यह कोई विद्रोह नहीं था, बल्कि एक तरह का "मनुष्य का शिकार" था। उनकी टुकड़ी ने मुख्य रूप से उन जुलू लोगों की सेवा की, जिन्हें गोरे सिपाही घायल कर देते थे। इन अनुभवों ने गांधीजी को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर किया।
ब्रह्मचर्य का व्रत
जुलू-विद्रोह के दौरान मीलों तक निर्जन प्रदेश में यात्रा करते हुए गांधीजी ने गहराई से सोचा। उन्होंने महसूस किया कि यदि उन्हें लोकसेवा में पूरी तरह तन्मय होना है, तो उन्हें संतानोत्पत्ति और परिवार के पालन-पोषण से मुक्त होना होगा। उन्होंने देखा कि व्रत लेना बंधन नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का द्वार है। 1906 के मध्य में, उन्होंने जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन करने का व्रत लिया।
सत्याग्रह का जन्म
1906 में, ट्रांसवाल सरकार ने एक ऐसा कानून प्रस्तावित किया जिसके तहत प्रत्येक भारतीय पुरुष, स्त्री और आठ वर्ष से अधिक उम्र के बच्चे को पंजीकरण करवाना, अपनी उंगलियों की छाप देना और हर समय परवाना अपने पास रखना अनिवार्य था। ऐसा न करने पर जुर्माना, जेल या देश निकाला हो सकता था। गांधीजी ने महसूस किया कि यह कानून समुदाय के आत्म-सम्मान पर एक गहरा आघात है।
11 सितंबर, 1906 को जोहानिसबर्ग में हिंदुस्तानियों की एक विशाल सभा हुई, जिसमें यह प्रतिज्ञा ली गई कि यदि यह कानून पास हुआ तो वे उसके सामने झुकेंगे नहीं और इसके परिणामस्वरूप होने वाले सभी दुःखों को सहन करेंगे। इस आंदोलन को क्या नाम दिया जाए, यह एक प्रश्न था। गांधीजी ने इसे "सत्याग्रह" नाम दिया—सत्य और शांति से उत्पन्न होने वाला बल।
कानून लागू होने पर, हिंदुस्तानियों ने पंजीकरण करवाने से इनकार कर दिया। सरकार ने नेताओं को गिरफ्तार करना शुरू कर दिया। 10 जनवरी, 1908 को गांधीजी को दो महीने की साधारण कैद की सजा सुनाई गई। जेल में सत्याग्रहियों की संख्या बढ़ने लगी। कुछ ही दिनों में, सरकार ने जनरल स्मट्स के माध्यम से एक समझौता प्रस्तावित किया: यदि हिंदुस्तानी स्वेच्छा से पंजीकरण करवा लें, तो काला कानून रद्द कर दिया जाएगा। गांधीजी सहमत हो गए और उन्हें रिहा कर दिया गया।
हमला और लड़ाई की पुनरावृत्ति
हालांकि, कुछ पठानों को लगा कि गांधीजी ने समुदाय के साथ विश्वासघात किया है। 10 फरवरी, 1908 को जब गांधीजी पंजीकरण कार्यालय जा रहे थे, तो मीर आलम नामक एक पठान और उसके साथियों ने उन पर लाठियों से हमला किया। गांधीजी बुरी तरह घायल हो गए, लेकिन उन्होंने अपने हमलावरों पर मुकदमा चलाने से इनकार कर दिया और उन्हें माफ करने की अपील की। उन्होंने घायल अवस्था में भी सबसे पहले अपना पंजीकरण करवाया।
जब जनरल स्मट्स अपने वादे से मुकर गए और काले कानून को रद्द नहीं किया, तो हिंदुस्तानियों ने अपने स्वेच्छा से प्राप्त किए गए परवाने एक विशाल कड़ाही में जला दिए। लड़ाई फिर से शुरू हो गई। हजारों सत्याग्रही जेल गए, अपनी नौकरियां और व्यापार खो दिए, लेकिन वे झुके नहीं।
फीनिक्स और टॉल्स्टॉय फार्म
आंदोलन के दौरान, गांधीजी ने दो महत्वपूर्ण आश्रमों की स्थापना की। पहला, फीनिक्स सेटलमेंट (1904), जो डरबन के पास था। यह रस्किन की पुस्तक 'अंटू दिस लास्ट' से प्रेरित था, जहाँ सभी समान वेतन पर रहते थे, खेती करते थे और 'इंडियन ओपिनियन' अखबार निकालते थे। दूसरा, टॉल्स्टॉय फार्म (1910), जोहानिसबर्ग के पास, जिसे उनके मित्र हरमन कैलनबैक ने सत्याग्रहियों के परिवारों के रहने के लिए दिया था। इन आश्रमों में जीवन सादा और स्वावलंबी था। लोग खुद खेती करते, चप्पल बनाते, और अपने बच्चों को पढ़ाते थे।
सत्याग्रह की विजय
1913 में, जब एक अदालत ने ईसाई रीति-रिवाज से हुए विवाहों के अलावा सभी विवाहों को अमान्य घोषित कर दिया, तो लड़ाई ने एक नया मोड़ लिया। इससे हिंदुस्तानी महिलाएँ क्रोधित हो गईं और वे भी सत्याग्रह में शामिल हो गईं। उन्होंने बिना परवाने के सीमाएँ पार कीं और कोयला खदानों के मजदूरों को हड़ताल करने के लिए प्रेरित किया। हजारों मजदूर हड़ताल पर चले गए और गांधीजी के नेतृत्व में नेटाल से ट्रांसवाल तक एक "भव्य कूच" (Great March) शुरू किया। गांधीजी को कई बार गिरफ्तार किया गया, लेकिन आंदोलन जारी रहा। अंततः, मजदूरों को भी गिरफ्तार कर खदानों में ही जेल बना दिया गया, जहाँ उन पर बहुत अत्याचार हुए।
इस दमन की खबर भारत पहुँची, जहाँ पूरे देश में आक्रोश फैल गया। वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने भी दक्षिण अफ्रीकी सरकार की आलोचना की। अंत में, जनरल स्मट्स को झुकना पड़ा। एक जाँच आयोग नियुक्त किया गया, और 1914 में 'इंडियन रिलीफ बिल' पास हुआ, जिसने तीन पौंड का कर रद्द कर दिया, विवाहों को कानूनी मान्यता दी, और हिंदुस्तानियों की अन्य प्रमुख शिकायतें दूर कीं। इस प्रकार, आठ साल की लंबी लड़ाई के बाद सत्याग्रह की विजय हुई। 18 जुलाई, 1914 को गांधीजी 21 साल दक्षिण अफ्रीका में बिताने के बाद भारत के लिए रवाना हुए।
अध्याय 5: भारत में स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व
जनवरी 1915 में गांधीजी भारत लौटे। उनके राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले ने उन्हें सलाह दी कि वे कोई भी कदम उठाने से पहले एक साल तक पूरे देश का भ्रमण करें और "कान खुले और मुँह बंद" रखें। गांधीजी ने तीसरे दर्जे में यात्रा करके भारत की गरीबी और लोगों के कष्टों को firsthand अनुभव किया।
चंपारण सत्याग्रह (1917)
बिहार के चंपारण जिले में, अंग्रेज बागान मालिक किसानों को अपनी जमीन के 3/20 हिस्से पर नील की खेती करने के लिए मजबूर करते थे, जिसे "तीनकठिया" प्रथा कहा जाता था। राजकुमार शुक्ल नामक एक किसान के आग्रह पर गांधीजी 1917 में चंपारण गए। वहाँ पहुँचते ही अधिकारियों ने उन्हें जिला छोड़ने का आदेश दिया। गांधीजी ने आदेश का सविनय अवज्ञा करने का निश्चय किया और कहा कि वे इसके लिए मिलने वाली सजा भुगतने को तैयार हैं। यह भारत में सविनय अवज्ञा का पहला उदाहरण था। सरकार को झुकना पड़ा, मुकदमा वापस ले लिया गया, और गांधीजी को जाँच करने की अनुमति दी गई। अंततः, एक जाँच समिति की सिफारिशों के आधार पर, तीनकठिया प्रथा समाप्त कर दी गई और सौ साल पुराना यह अन्याय मिट गया।
अहमदाबाद मिल हड़ताल (1918)
चंपारण के बाद, गांधीजी अहमदाबाद पहुँचे, जहाँ मिल मजदूरों और मालिकों के बीच वेतन वृद्धि को लेकर विवाद चल रहा था। गांधीजी ने मजदूरों को शांतिपूर्ण और अहिंसक हड़ताल करने की सलाह दी। जब 21 दिनों के बाद भी कोई समाधान नहीं निकला और मजदूर डगमगाने लगे, तो गांधीजी ने घोषणा की कि जब तक समझौता नहीं हो जाता, वे स्वयं उपवास करेंगे। यह भारत में उनकी पहली भूख हड़ताल थी। उनके उपवास का मिल मालिकों पर गहरा प्रभाव पड़ा, और तीन दिनों के भीतर, वे पंच के माध्यम से मामला सुलझाने के लिए सहमत हो गए, और हड़ताल समाप्त हो गई।
खेड़ा सत्याग्रह (1918)
अहमदाबाद के तुरंत बाद, गांधीजी को खेड़ा जिले के सत्याग्रह का नेतृत्व करना पड़ा। वहाँ फसल नष्ट हो जाने के कारण किसान लगान माफी की माँग कर रहे थे, लेकिन सरकार सुनने को तैयार नहीं थी। गांधीजी ने किसानों को लगान न देने की प्रतिज्ञा दिलाई। सरकार ने दमन का सहारा लिया, कुर्की की, पशुओं को बेच दिया और फसलें जब्त कर लीं। अंत में, सरकार ने एक गुप्त आदेश जारी किया कि जो लोग लगान दे सकते हैं, केवल उन्हीं से वसूला जाए। इस प्रकार, लड़ाई समाप्त हुई और इसने गुजरात के किसानों में एक नई जागृति पैदा की।
रॉलेट एक्ट और जलियाँवाला बाग (1919)
1919 में, सरकार ने रॉलेट एक्ट पास किया, जो सरकार को बिना मुकदमा चलाए किसी को भी जेल में डालने का अधिकार देता था। गांधीजी ने इसे एक "काला कानून" कहा और इसके खिलाफ देशव्यापी सत्याग्रह का आह्वान किया। उन्होंने 6 अप्रैल को हड़ताल, उपवास और प्रार्थना के दिन के रूप में मनाने का सुझाव दिया। दिल्ली में 30 मार्च को ही हड़ताल हुई और पुलिस की गोलीबारी में कई लोग मारे गए। 13 अप्रैल को, बैसाखी के दिन, अमृतसर के जलियाँवाला बाग में एक शांतिपूर्ण सभा पर जनरल डायर ने अंधाधुंध गोलियाँ चलवाईं, जिसमें 400 से अधिक लोग मारे गए। इस हत्याकांड ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया और गांधीजी का ब्रिटिश न्याय से विश्वास उठ गया।
असहयोग आंदोलन (1920-22)
जलियाँवाला बाग और खिलाफत के प्रश्न (तुर्की के खलीफा के अधिकारों की रक्षा) को लेकर गांधीजी ने 1920 में असहयोग आंदोलन शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने लोगों से सरकारी उपाधियाँ लौटाने, सरकारी स्कूलों, अदालतों और नौकरियों का बहिष्कार करने, और विदेशी कपड़ों की जगह हाथ से बने खादी पहनने का आग्रह किया। यह आंदोलन अभूतपूर्व रूप से सफल रहा और इसने ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी। लेकिन फरवरी 1922 में, जब उत्तर प्रदेश के चौरी-चौरा में भीड़ ने एक पुलिस थाने में आग लगा दी, जिसमें 22 पुलिसकर्मी मारे गए, तो गांधीजी ने आंदोलन को तुरंत स्थगित कर दिया, क्योंकि वे हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
नमक सत्याग्रह (दांडी मार्च, 1930)
1930 में, गांधीजी ने नमक पर ब्रिटिश सरकार के एकाधिकार के खिलाफ एक और बड़ा आंदोलन छेड़ने का फैसला किया। उन्होंने 12 मार्च, 1930 को अपने 78 अनुयायियों के साथ साबरमती आश्रम से दांडी के समुद्र तट तक लगभग 400 किलोमीटर की पैदल यात्रा शुरू की। 6 अप्रैल को दांडी पहुँचकर उन्होंने समुद्र के पानी से नमक बनाकर कानून तोड़ा। इस घटना ने पूरे देश में सविनय अवज्ञा आंदोलन की एक लहर पैदा कर दी। लाखों लोगों ने नमक कानून तोड़ा, विदेशी कपड़ों और शराब की दुकानों पर धरने दिए, और कर देने से इनकार कर दिया। सरकार ने दमन का सहारा लिया और गांधीजी सहित 60,000 से अधिक लोगों को जेल में डाल दिया गया।
भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से परामर्श किए बिना भारत को युद्ध में शामिल कर दिया, तो गांधीजी ने स्वतंत्रता के लिए अपने अंतिम और सबसे शक्तिशाली आंदोलन का आह्वान किया। 8 अगस्त, 1942 को, उन्होंने बम्बई में "भारत छोड़ो" का नारा दिया और लोगों से "करो या मरो" का आह्वान किया। अगले ही दिन, गांधीजी और कांग्रेस के सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन जनता ने आंदोलन को अपने हाथों में ले लिया। पूरे देश में हड़तालें और प्रदर्शन हुए, और कई जगहों पर हिंसा भी भड़की। सरकार ने क्रूरता से आंदोलन को कुचल दिया, लेकिन इसने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत अब ब्रिटिश शासन को स्वीकार नहीं करेगा।
भाग-2: मूल दर्शन - गांधीवादी विचार के स्तंभ
गांधीजी का जीवन उनके दर्शन का प्रतिबिंब था। उनके विचार सत्य, अहिंसा, धर्म और नैतिकता पर आधारित थे, जिनका उद्देश्य एक शोषण-मुक्त, मानवीय और समतावादी समाज की स्थापना करना था।
अध्याय 6: सत्य और अहिंसा
सत्य ही ईश्वर है
गांधीजी के लिए सत्य सर्वोपरि सिद्धांत था। वे ईश्वर को सत्य के रूप में पूजते थे। उन्होंने अनुभव किया कि सत्य से भिन्न कोई परमेश्वर नहीं है। उनकी प्रसिद्ध उक्ति थी, "ईश्वर सत्य है," जिसे उन्होंने बाद में बदलकर "सत्य ही ईश्वर है" कर दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि नास्तिक भी सत्य की शक्ति को स्वीकार करते हैं, भले ही वे ईश्वर के अस्तित्व को न मानें। सत्य की उनकी खोज अहिंसा के माध्यम से थी, क्योंकि उनका मानना था कि सत्य का संपूर्ण दर्शन संपूर्ण अहिंसा के बिना असंभव है।
अहिंसा: प्रेम और उदारता की पराकाष्ठा
अहिंसा का शाब्दिक अर्थ है हिंसा न करना, लेकिन गांधीजी के लिए इसका व्यापक अर्थ था—किसी भी प्राणी को मन, वचन या कर्म से कष्ट न पहुँचाना। उनके अनुसार, अहिंसा कायरता नहीं, बल्कि वीरों और बहादुरों का गुण है। उन्होंने यहाँ तक कहा कि यदि कायरता और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो, तो वे हिंसा का चुनाव करने की सलाह देंगे। अहिंसा की जड़ में प्रेम और करुणा है। उनका मानना था कि प्रेम ही दुनिया का संचालन करता है, जबकि घृणा विनाश की ओर ले जाती है। अहिंसा में कठोर से कठोर हृदय को पिघलाने की शक्ति होती है।
गांधीजी ने अहिंसा के तीन स्वरूप बताए:
- जाग्रत अहिंसा: यह वीरों की अहिंसा है, जिसे व्यक्ति नैतिक मूल्यों में दृढ़ आस्था के कारण अपनाता है, न कि किसी लाचारी के कारण।
- व्यावहारिक अहिंसा: यह निर्बल और असहाय व्यक्तियों की अहिंसा है, जो अपनी दुर्बलता के कारण हिंसा का प्रयोग नहीं कर पाते। गांधीजी ने इसे "निष्क्रिय प्रतिरोध" कहा।
- कायरों की अहिंसा: यह भय पर आधारित है, जहाँ व्यक्ति परिस्थितियों का सामना करने के बजाय भाग खड़ा होता है। गांधीजी कायरता के बिल्कुल पक्ष में नहीं थे।
अध्याय 7: सत्याग्रह - सत्य के लिये आग्रह
सत्याग्रह गांधीजी का सबसे बड़ा आविष्कार था, जो सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित था। इसका शाब्दिक अर्थ है "सत्य के लिए आग्रह" या "आत्म-बल"। यह निष्क्रिय प्रतिरोध से भिन्न था, क्योंकि निष्क्रिय प्रतिरोध जहाँ कमजोरों का हथियार माना जा सकता है और जिसमें हिंसा की गुंजाइश हो सकती है, वहीं सत्याग्रह शक्तिशाली लोगों का हथियार है और इसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है।
सत्याग्रह का उद्देश्य विरोधी को नष्ट करना नहीं, बल्कि उसके हृदय को प्रेम और आत्म-पीड़ा से जीतना है। गांधीजी का मानना था कि एक सच्चा सत्याग्रही कभी परास्त नहीं होता; वह तभी हारता है जब वह सत्य और अहिंसा को छोड़ देता है।
सत्याग्रह के मुख्य साधन थे:
- असहयोग (Non-cooperation): अन्यायपूर्ण व्यवस्था के साथ सहयोग न करना।
- सविनय अवज्ञा (Civil Disobedience): अन्यायपूर्ण कानूनों को शांतिपूर्वक तोड़ना।
- उपवास (Fasting): आत्मशुद्धि और विरोधी के हृदय परिवर्तन के लिए एक शक्तिशाली हथियार।
- हड़ताल और धरना (Strikes and Picketing): शांतिपूर्ण तरीके से काम बंद करना और विरोध प्रदर्शन करना।
अध्याय 8: सर्वोदय और स्वराज
सर्वोदय: सबका उदय
सर्वोदय का अर्थ है "सबका उदय" या "सार्वभौमिक उत्थान"। यह विचार गांधीजी ने जॉन रस्किन की पुस्तक 'अंटू दिस लास्ट' से ग्रहण किया था। रस्किन की पुस्तक से उन्होंने तीन सिद्धांत समझे:
- सबकी भलाई में हमारी भलाई निहित है।
- वकील और नाई, दोनों के काम का मूल्य एक समान है, क्योंकि आजीविका का अधिकार सबको एक समान है।
- सादा मेहनत-मजदूरी का, किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है।
सर्वोदय का लक्ष्य कुछ या बहुतों का नहीं, बल्कि सभी का कल्याण है—चाहे वह अमीर हो या गरीब, शक्तिशाली हो या कमजोर।
स्वराज: आत्म-शासन
गांधीजी के लिए स्वराज का अर्थ केवल राजनीतिक स्वतंत्रता नहीं था। इसका गहरा अर्थ था आत्म-शासन या स्वयं पर नियंत्रण। उन्होंने कहा, "जब हम अपने ऊपर शासन करना सीख लेते हैं, वही सच्चा स्वराज है"। गांधीजी एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जहाँ हर व्यक्ति अपना शासक स्वयं हो और इस प्रकार शासन करे कि वह अपने पड़ोसी के लिए बाधा न बने। यह "प्रबुद्ध अराजकता" की स्थिति थी, जहाँ राज्य की कोई आवश्यकता नहीं होती।
उन्होंने ग्राम स्वराज की कल्पना की, जहाँ प्रत्येक गाँव अपनी आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर होगा और अपने मामले स्वयं चलाएगा। यह एक विकेंद्रीकृत व्यवस्था थी, जहाँ शक्ति आम लोगों के हाथों में होती थी।
अध्याय 9: आर्थिक विचार - ट्रस्टीशिप और स्वदेशी
गांधीजी के आर्थिक विचार अहिंसा, नैतिकता और मानवीय मूल्यों पर आधारित थे।
ट्रस्टीशिप (न्यासिता)
गांधीजी पूंजीवाद और साम्यवाद, दोनों के विरोधी थे, क्योंकि एक में शोषण था तो दूसरे में हिंसा। उन्होंने ट्रस्टीशिप या न्यासिता का सिद्धांत प्रस्तुत किया। इसके अनुसार, जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता से अधिक संपत्ति रखता है, वह उस अतिरिक्त संपत्ति का मालिक नहीं, बल्कि समाज का ट्रस्टी (न्यासी) होता है। उसे अपनी जायज जरूरतों के लिए उसमें से लेना चाहिए और शेष को समाज के हित में खर्च करना चाहिए। यह सिद्धांत अहिंसक तरीके से आर्थिक समानता लाने का एक माध्यम था।
मशीनों पर विचार
गांधीजी को मशीनों से एक "महादोष" दिखता था। उनका मानना था कि बड़ी मशीनें कुछ हाथों में धन का केंद्रीकरण करती हैं, लाखों लोगों को बेरोजगार बनाती हैं, और मनुष्य को अपना गुलाम बना लेती हैं। वे श्रम बचाने वाली मशीनों की "सनक" के खिलाफ थे। हालांकि, वे उन सभी मशीनों के विरोधी नहीं थे। उन्होंने कहा था, "चरखा स्वयं एक मशीन है।" वे उन मशीनों का स्वागत करते थे जो व्यक्तिगत श्रम को हल्का करती हैं, लेकिन उन मशीनों का विरोध करते थे जो मनुष्य का स्थान ले लेती हैं।
स्वदेशी: आत्मनिर्भरता
स्वदेशी का अर्थ है "अपने देश का"। गांधीजी के लिए यह एक धार्मिक अनुशासन था, जिसका अर्थ था अपने तत्काल पड़ोस में बनी वस्तुओं का उपयोग करना और दूसरों की बनाई चीजों का त्याग करना। यह आत्मनिर्भरता और अपने समुदाय के भीतर ध्यान केंद्रित करने का सिद्धांत था। उनका मानना था कि स्वदेशी का पालन करने से भारत के लाखों भूखे और बेकार लोगों को काम मिलेगा, विशेषकर चरखे के माध्यम से। यह भारत की आर्थिक स्वतंत्रता की कुंजी थी।
भाग-3: सामाजिक सुधार और दृष्टि
गांधीजी का मानना था कि राजनीतिक स्वतंत्रता तब तक अधूरी है जब तक समाज आंतरिक बुराइयों से मुक्त न हो।
अध्याय 10: अस्पृश्यता निवारण
गांधीजी अस्पृश्यता को हिंदू धर्म पर एक "कलंक" और "एक सौ सिर वाला दैत्य" मानते थे। उन्होंने माना कि इस पाप के लिए सवर्ण हिंदू दोषी हैं और उन्हें इसका प्रायश्चित करना चाहिए। उन्होंने अस्पृश्यता को मिटाने के लिए कई कदम उठाए:
- उन्होंने "अछूतों" को "हरिजन" (ईश्वर के लोग) नाम दिया।
- उन्होंने हरिजनों के लिए मंदिरों के द्वार खोलने के लिए मंदिर-प्रवेश आंदोलन चलाया।
- उन्होंने सवर्णों से हरिजनों के साथ रहने, स्वच्छता, और शिक्षा की व्यवस्था करने का आग्रह किया।
- उन्होंने स्वयं अपने आश्रम में एक दलित परिवार (दूदाभाई, दानीबहन और उनकी बेटी लक्ष्मी) को रखकर एक उदाहरण प्रस्तुत किया, जिसके कारण उन्हें आर्थिक मदद बंद होने और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा।
अध्याय 11: सांप्रदायिक एकता
गांधीजी के लिए हिंदू-मुस्लिम एकता उनके जीवन का एक मुख्य ध्येय था। वे मानते थे कि जब तक दोनों समुदाय एक नहीं हो जाते, भारत के लिए सच्चा स्वराज एक सपना ही रहेगा। उन्होंने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया ताकि मुसलमानों का विश्वास जीता जा सके और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में शामिल किया जा सके। उन्होंने बार-बार कहा कि धर्म अलग होने से कोई दुश्मन नहीं बन जाता; धर्म तो एक ही जगह पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं। देश के विभाजन ने उन्हें गहरा आघात पहुँचाया, और वे स्वतंत्रता के जश्न में भी शामिल नहीं हुए, बल्कि कलकत्ता में दंगे रोकने के लिए उपवास करते रहे।
अध्याय 12: महिला सशक्तिकरण
गांधीजी महिलाओं को "कमजोर लिंग" कहे जाने को एक अपमान मानते थे। उन्होंने पर्दा प्रथा, बाल विवाह, और दहेज जैसी कुप्रथाओं का कड़ा विरोध किया। उनका मानना था कि महिला पुरुष की दासी नहीं, बल्कि सहचरी और सहधर्मिणी है। उन्होंने महिलाओं को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि अहिंसा की लड़ाई में महिलाएँ पुरुषों से भी बेहतर सैनिक साबित हो सकती हैं, क्योंकि उनमें त्याग और पीड़ा सहने की क्षमता अधिक होती है।
अध्याय 13: शिक्षा और स्वास्थ्य
गांधीजी मौजूदा शिक्षा प्रणाली के आलोचक थे। उन्होंने "बुनियादी शिक्षा" (नई तालीम) का विचार प्रस्तुत किया, जिसमें शिक्षा को हस्तकला (जैसे कताई-बुनाई) के माध्यम से दिया जाना था ताकि बच्चे आत्मनिर्भर बन सकें और श्रम का सम्मान करना सीखें। वे शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाने के प्रबल समर्थक थे।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में, वे प्राकृतिक चिकित्सा के पक्षधर थे और मिट्टी, पानी एवं उपवास जैसे घरेलू उपचारों पर विश्वास करते थे। स्वच्छता उनके लिए ईश्वर के समान थी, और उन्होंने गाँवों में स्वच्छता के लिए अभियान चलाए।
भाग-4: विरासत और प्रासंगिकता
अध्याय 14: अंतिम क्षण और हत्या
30 जनवरी, 1948 की शाम को, जब गांधीजी दिल्ली के बिड़ला भवन में एक प्रार्थना सभा के लिए जा रहे थे, तो नाथूराम गोडसे नामक एक हिंदू राष्ट्रवादी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। उनके मुख से निकले अंतिम शब्द 'हे राम' माने जाते हैं, हालांकि इस पर कुछ विवाद भी है। उनकी मृत्यु पर अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था, "आने वाली पीढ़ियाँ मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस का ऐसा कोई व्यक्ति इस धरती पर चला होगा"।
अध्याय 15: सिनेमा में गांधी
गांधीजी के जीवन और विचारों ने भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय सिनेमा को गहराई से प्रभावित किया है। उन पर कई फिल्में बन चुकी हैं जो उनके किरदार को बड़े पर्दे पर जीवंत करती हैं। इनमें 'लगे रहो मुन्ना भाई' जैसी फिल्में भी शामिल हैं, जिन्होंने गांधीवादी सिद्धांतों को आधुनिक संदर्भ में लोकप्रिय बनाया। अन्य प्रमुख फिल्मों में 'हे राम', 'मैंने गांधी को नहीं मारा', और तेलुगु फिल्म 'महात्मा' शामिल हैं।
निष्कर्ष
गांधीजी का जीवन उनका संदेश था। उन्होंने अपने विचारों को केवल उपदेशों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें अपने जीवन में उतारा। आज जब विश्व हिंसा, घृणा, उपभोक्तावाद और पर्यावरणीय संकट जैसी समस्याओं से जूझ रहा है, तो गांधीजी के सत्य, अहिंसा, सर्वोदय और सादगी के सिद्धांत पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उन्होंने सिखाया कि सच्चा परिवर्तन बाहर से नहीं, बल्कि भीतर से आता है। आत्म-शुद्धि के बिना सच्ची स्वतंत्रता असंभव है। उनका दिखाया मार्ग कठिन हो सकता है, लेकिन जैसा कि उन्होंने स्वयं कहा, "पृथ्वी, हवा, ज़मीन और पानी हमारे पूर्वजों से विरासत में नहीं बल्कि हमारे बच्चों से उधार में मिले हैं। इसलिए हमें उन्हें कम से कम वैसे ही सौंपना चाहिए जैसे हमें सौंपा गया था"। मानवता की मुक्ति इसी रास्ते पर चलकर संभव है।
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